पथिक
(I)
मैं एक पथिक, जीवन एक यात्रा, मेरा एक ही गंतव्य है,
हर मोह त्याग, मंज़िल को पाना, यही मेरा कर्तव्य है.
महापुरुषों की महानता इसी से है, सभी मंज़िल की ओर अग्रसर हैं,
सभी दार्शनिक, सभी किताबें, सब इसी की पक्षधर हैं.
माँ-पिताजी का वात्सल्य, मुझे थाम नहीं पायेगा,
इसके घाट उतरा, तो कोई थाह नहीं पायेगा,
उनके आँसू उन्हीं की भूल हैं, भला मुझसे आस लगाई क्यों,
मैं एक पथिक हूँ, निश्चित थी मेरी विदाई तो.
मासूम, सहमा-सा मेरा अनुज, मुझे देख दौड़ पड़ा, मेरी बाँह थामनी है,
मैंने छिटक दिया, मंजिलें चाहे एक हों, ये राहें तो तन्हा नापनी हैं.
ये व्यक्ति मुझे अपना मित्र कहता है, साथ सहायता की गुहार है,
पर चाहूँ भी तो रुक नहीं सकता, चलते रहना समय की पुकार है.
मुझसे सुख-दुःख बांचने को आतुर, मुझे पूजती, ये मेरी अर्धांग्नी है,
पर इस हमराही का भी मोह त्यागा, प्रीत ही तो पीड़ा की जननी है.
अभिभावक, भाई, बन्धु और अर्धांग्नी, ये सब उस बेड़ी की कड़ी हैं, जो यात्रा बोझिल बनाती है,
इन सब से स्वतंत्र, निरंतर अग्रसर, मैं एक पथिक, मुझे मेरी मंज़िल बुलाती है.
किसी रोगी का रुंदन सुन मन ही मन मुस्कुराता हूँ,
कोई निर्धन व्यथा रो दे तो जम कर झुंझलाता हूँ.
किसी मृत्यु पर मौन मना लूँ शोक नहीं, कैसी मोहब्बत लाशों से,
मर कर भी जो मिट ना पाएँ, खुदा बचाए ऐसे पाशों से.
दुःख-दर्द, प्रेम अनुराग, सब माया है, एक मृग-मरीचिका है जीवन के रेगिस्तानों में,
ये मरुस्थल क्या लांघेगा, पथ-विमुख, जो व्यस्त है इन्ही व्यवधानों में.
(II)
चारों ओर घोर सन्नाटा है, तम का वर्चस्व छाया है,
किसी गैर की शहादत नहीं, धरती पर पस्त, मेरी ही तो काया है.
मुंह खोले, हाथ पसारे, समस्त इन्द्रियाँ अब बेजान हैं,
बड़ी-बड़ी उन किताबों में, क्या इसी गंतव्य का व्याख्यान है.
समस्त वजूद सिहर उठा, जब चेतना में ये विचार कौंधा,
इसी मंज़िल की खातिर, मैंने हर रिश्ता, हर भाव रौंदा.
सागर से मिल मिट जाने को, नदी काटती चली थी अपना ही साहिल.
मैं एक पथिक, जीवन एक यात्रा, पर अब हर पड़ाव एक मंज़िल.
-2004
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