कोशिश
मेरा देश आकाश की बुलंदियाँ चूमे, दिल में कुछ ऐसी एक आस है,
इसी वास्ते, प्रयास के प्रतिफलों पर प्रकाश डालने का ये तुच्छ प्रयास है.
पर भ्रष्टाचार के इस दौड़ में प्रयास की प्रेरणा कहाँ से लायें,
नफरत की आंधी में प्रेम-पौधा कैसे उपजाएँ.
प्रेरणा ही चाहिए तो आओ मेरे साथ,
इन्हें देखो, डरो मत, मिलाओ इनसे हाथ.
स्पर्श-मात्र का साहस नहीं तो निगाह ही मिलालो,
राख में अब भी इतने अंगारे होंगे की रूह की मन्दाग्नि जिलालो.
भाग्य ने भी अनछुआ किया तो अपाहिज हाथों से ही अपना प्रारब्ध लिखा है,
हर पल अपने ही अंगों को गलते देखा, पर नेत्रों में अब भी एक शिखा है.
हर श्वास के संग मृत्यु का आभास, कोड़ियों का स्वयं जिंदगी द्वारा उपहास है,
पर जीने की आस, हर परिस्थिति से संघर्ष का प्रयास, जीवन के निर्दयी परिहास पर अठ्ठहास है.
इस पतंगे को देखो, शमा के समक्ष क्या इसकी बिसात है,
पर इसी प्रभाव में है, की दीप इसी के मोह में जलता रात-दर-रात है.
जैसे ज़हर का शत्रु ज़हर, दिन के उजाले में दीप प्रकाश गुम हो गया,
शिखा विलुप्त तो कीट विक्षुप्त, अपने गम में गुमसुम कीट, महबूबा से महरूम रह गया.
फिर सांझ ढली तो प्रेम के दरिया का क्या भीषण प्रवाह हुआ,
मिलन को तत्पर कीट, जिसको सर्वस्व जाना, उसी के भीतर स्वाह हुआ.
धूँ-धूँ कर जल गया पर हिम्मत कहाँ डोली है,
अपनी आहुति को तत्पर, परवानों की पूरी टोली है.
कुछ सीख इन मौजों से लो, इन्हें पर्वत मोड़ लें, रोक नहीं सकते,
पुष्पों से मुस्कुराना सीखो, कभी पतझड़ का भी ये शोक नहीं करते.
पर क्यों लाख कोशिशों पर भी शिलाएं सरीता पी नहीं सकती,
जल-बिन मछली जितना छटपटाए, पशु सरीखा जी नहीं सकती.
वायु में भरसक वेग है तो पुष्पों की भी ग्रीवा झुकेगी,
शिलाओं की पिपासा तेज है तो सम्पूर्ण सरस्वती सूखेगी.
समस्या सरल है या किसी दूजी ही दुनिया का रोग है,
अंजाम ना देख, प्रयत्न करते रहना ही तो सच्चा कर्मयोग है.
मेरा देश आकाश की बुलंदियाँ चूमे, दिल में कुछ ऐसी एक आस है,
इसी वास्ते, प्रयास के प्रतिफलों पर प्रकाश डालने का ये तुच्छ प्रयास है.
पर भ्रष्टाचार के इस दौड़ में प्रयास की प्रेरणा कहाँ से लायें,
नफरत की आंधी में प्रेम-पौधा कैसे उपजाएँ.
प्रेरणा ही चाहिए तो आओ मेरे साथ,
इन्हें देखो, डरो मत, मिलाओ इनसे हाथ.
स्पर्श-मात्र का साहस नहीं तो निगाह ही मिलालो,
राख में अब भी इतने अंगारे होंगे की रूह की मन्दाग्नि जिलालो.
भाग्य ने भी अनछुआ किया तो अपाहिज हाथों से ही अपना प्रारब्ध लिखा है,
हर पल अपने ही अंगों को गलते देखा, पर नेत्रों में अब भी एक शिखा है.
हर श्वास के संग मृत्यु का आभास, कोड़ियों का स्वयं जिंदगी द्वारा उपहास है,
पर जीने की आस, हर परिस्थिति से संघर्ष का प्रयास, जीवन के निर्दयी परिहास पर अठ्ठहास है.
इस पतंगे को देखो, शमा के समक्ष क्या इसकी बिसात है,
पर इसी प्रभाव में है, की दीप इसी के मोह में जलता रात-दर-रात है.
जैसे ज़हर का शत्रु ज़हर, दिन के उजाले में दीप प्रकाश गुम हो गया,
शिखा विलुप्त तो कीट विक्षुप्त, अपने गम में गुमसुम कीट, महबूबा से महरूम रह गया.
फिर सांझ ढली तो प्रेम के दरिया का क्या भीषण प्रवाह हुआ,
मिलन को तत्पर कीट, जिसको सर्वस्व जाना, उसी के भीतर स्वाह हुआ.
धूँ-धूँ कर जल गया पर हिम्मत कहाँ डोली है,
अपनी आहुति को तत्पर, परवानों की पूरी टोली है.
कुछ सीख इन मौजों से लो, इन्हें पर्वत मोड़ लें, रोक नहीं सकते,
पुष्पों से मुस्कुराना सीखो, कभी पतझड़ का भी ये शोक नहीं करते.
पर क्यों लाख कोशिशों पर भी शिलाएं सरीता पी नहीं सकती,
जल-बिन मछली जितना छटपटाए, पशु सरीखा जी नहीं सकती.
वायु में भरसक वेग है तो पुष्पों की भी ग्रीवा झुकेगी,
शिलाओं की पिपासा तेज है तो सम्पूर्ण सरस्वती सूखेगी.
समस्या सरल है या किसी दूजी ही दुनिया का रोग है,
अंजाम ना देख, प्रयत्न करते रहना ही तो सच्चा कर्मयोग है.
-2003
No comments:
Post a Comment