कटाक्ष
यह कविता के माध्यम से देश को जानने का प्रयास है,
अपनी खामियों का उपहास नहीं, प्रगति की एक आस है.
भूमिका सरल थी, सो बंध गयी, अब एक आदर्श आरम्भ विचाराधीन है,
श्री गणेश को 'राम के सेवक' उपयुक्त हैं, पर सरकार भी तो 'लक्ष्मी' में लीन है.
मैंने आतंकवाद को प्राथमिकता दी तो भ्रष्टाचार की भृकुटी तन जाएगी,
मंदिर-मस्जिद का मसला सहलाया, तो धर्म के ठेकेदारों से ठन जाएगी.
एक ओर क़ानून की तानाशाही है, दूसरी ओर जुर्म की ललकार है,
'पोटा' खारिज हो या पारित, मुझे अब भी एक मुद्दे की दरकार है.
खेल के शौक़ीन ध्यान दें, दो अहम् की भिड़ंत है, स्वर्ग मेज़बान है,
'गुलशन था इसके दम पे', जमी बर्फ व बहता लहु, अब घाटी की पहचान है.
सीमा पर बिछा बारूद, दो देशों का टकराव नहीं, खून के रिश्तों में दरार है,
पर सरकारी नीतियों से मुझे क्या सारोकार, मेरी 'आवश्यकता' बरकरार है.
कहो तो मज़हबी कफ़न काट कर दिखाऊं, अन्दर अपनों की ही लाश है,
पर दिखाऊं किसे, दर्शक तो नदारद हैं, शायद अगले बकरे की तलाश है.
एक चिता जलेगी, तो एक कब्र खुदेगी, कुछ गज़ब का करार है,
'मोदी' से कोई मलाल नहीं, कुल एक 'आरम्भ' की गुहार है.
चीथड़ों में लिपटी गरीबी का चीत्कार सुनोगे, या नारी की विवश वेदना सुनाऊं,
पशोपेश में हूँ, 'जन्नत' से जीवन को बाध्य, किस प्राणी की गाथा गुनगुनाऊं.
'भारत उदय', सरकारी कार्यों का समूचा सार, पेपर में निकलते इश्तिहार हैं,
तीव्र विकास के आदि हैं नेता, सारे कटाक्ष बेकार हैं.
- 2002 (After the Gujarat riots)
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