सूर्य का शव
लालिमा आकाश लील चुकी है, उजाले का वर्चस्व पिघल रहा है,
सारी सृष्टि मानो शोक में हो, फिर सूर्य का शव निकल रहा है.
मेघों ने आवेश में लिया आलिंगन, और शिथिल तन को चादर मिल गयी.
टूटते तारों को भी देख स्वार्थी, स्वाकांक्षा पूर्ती की जो मांग करे,
जिसके अश्रु तक हैं द्विअर्थी, वो मानव भी दुःख का स्वांग भरे.
रात्रोपश्चात प्रभात, नियति भरे दम, कि नियत विधि अनिवार्य है,
किन्तु पंक्ति में फिर तम, कि उपस्थिति भी अपरिहार्य है.
अन्दर ही घुट रहा है जैसे मूक बधीर, सूर्यमुखी क्या जाने नियति कि माया,
जिसके अधीन हो, सूर्य व्याकुलता से अधीर, पूरब से पश्चिम तक हो आया.
वो सर्वस्व था और वही आराध्य, प्रारब्ध नहीं अपनी जड़ता पर रोष है,
सूर्यमुखी अब मुख छिपा लेने को बाध्य, आखिर सब उसका ही तो दोष है.
- 2004
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