Thursday, August 25, 2011

From the Archives - 6 (बयाँ-ए-दास्ताँ-ए-दिल)

                 बयाँ-ए-दास्ताँ-ए-दिल

कुछ कह ना सके, हमें शर्मो-हया ने रोका,
कागज़ के पुर्जों पर भी ये बयाँ ना होगा,
जो इशारे किये वो शायद नाकाफी थे,
नज़रों पर भी ज़माने के परदे हावी थे.

पर ये मुमकिन नहीं तुझे देख कर मेरी धड़कनों का बढ जाना तुझे महसूस नहीं हुआ,
मेरी हर सांस सिर्फ तुझे ही पुकारे मेरा नाम फिर भी तेरे दिल में महफूज़ नहीं हुआ, महफूज़ नहीं हुआ..

-2003

Saturday, July 30, 2011

From the Archives - 5 (पथिक)

                              पथिक

                                (I)

मैं एक पथिक, जीवन एक यात्रा, मेरा एक ही गंतव्य है,
हर मोह त्याग, मंज़िल को पाना, यही मेरा कर्तव्य है.
महापुरुषों की महानता इसी से है, सभी मंज़िल की ओर अग्रसर हैं,
सभी दार्शनिक, सभी किताबें, सब इसी की पक्षधर हैं.

माँ-पिताजी का वात्सल्य, मुझे थाम नहीं पायेगा,
इसके घाट उतरा, तो कोई थाह नहीं पायेगा,
उनके आँसू उन्हीं की भूल हैं, भला मुझसे आस लगाई क्यों,
मैं एक पथिक हूँ, निश्चित थी मेरी विदाई तो.
मासूम, सहमा-सा मेरा अनुज, मुझे देख दौड़ पड़ा, मेरी बाँह थामनी है,
मैंने छिटक दिया, मंजिलें चाहे एक हों, ये राहें तो तन्हा नापनी हैं.
ये व्यक्ति मुझे अपना मित्र कहता है, साथ सहायता की गुहार है,
पर चाहूँ भी तो रुक नहीं सकता, चलते रहना समय की पुकार है.
मुझसे सुख-दुःख बांचने को आतुर, मुझे पूजती, ये मेरी अर्धांग्नी है,
पर इस हमराही का भी मोह त्यागा, प्रीत ही तो पीड़ा की जननी है.

अभिभावक, भाई, बन्धु और अर्धांग्नी, ये सब उस बेड़ी की कड़ी हैं, जो यात्रा बोझिल बनाती है,
इन सब से स्वतंत्र, निरंतर अग्रसर, मैं एक पथिक, मुझे मेरी मंज़िल बुलाती है.

किसी रोगी का रुंदन सुन मन ही मन मुस्कुराता हूँ,
कोई निर्धन व्यथा रो दे तो जम कर झुंझलाता हूँ.
किसी मृत्यु पर मौन मना लूँ शोक नहीं, कैसी मोहब्बत लाशों से,
मर कर भी जो मिट ना पाएँ, खुदा बचाए ऐसे पाशों से.

दुःख-दर्द, प्रेम अनुराग, सब माया है, एक मृग-मरीचिका है जीवन के रेगिस्तानों में,
ये मरुस्थल क्या लांघेगा, पथ-विमुख, जो व्यस्त है इन्ही व्यवधानों में.

                                    (II)

चारों ओर घोर सन्नाटा है, तम का वर्चस्व छाया है,
किसी गैर की शहादत नहीं, धरती पर पस्त, मेरी ही तो काया है.
मुंह खोले, हाथ पसारे, समस्त इन्द्रियाँ अब बेजान हैं,
बड़ी-बड़ी उन किताबों में, क्या इसी गंतव्य का व्याख्यान है.
समस्त वजूद सिहर उठा, जब चेतना में ये विचार कौंधा,
इसी मंज़िल की खातिर, मैंने हर रिश्ता, हर भाव रौंदा.

सागर से मिल मिट जाने को, नदी काटती चली थी अपना ही साहिल.
मैं एक पथिक, जीवन एक यात्रा, पर अब हर पड़ाव एक मंज़िल.
-2004

From the Archives - 4 (कोशिश)

                              कोशिश

मेरा देश आकाश की बुलंदियाँ चूमे, दिल में कुछ ऐसी एक आस है,
इसी वास्ते, प्रयास के प्रतिफलों पर प्रकाश डालने का ये तुच्छ प्रयास है.
पर भ्रष्टाचार के इस दौड़ में प्रयास की प्रेरणा कहाँ से लायें,
नफरत की आंधी में प्रेम-पौधा कैसे उपजाएँ.

प्रेरणा ही चाहिए तो आओ मेरे साथ,
इन्हें देखो, डरो मत, मिलाओ इनसे हाथ.
स्पर्श-मात्र का साहस नहीं तो निगाह ही मिलालो,
राख में अब भी इतने अंगारे होंगे की रूह की मन्दाग्नि जिलालो.
भाग्य ने भी अनछुआ किया तो अपाहिज हाथों से ही अपना प्रारब्ध लिखा है,
हर पल अपने ही अंगों को गलते देखा, पर नेत्रों में अब भी एक शिखा है.
हर श्वास के संग मृत्यु का आभास, कोड़ियों का स्वयं जिंदगी द्वारा उपहास है,
पर जीने की आस, हर परिस्थिति से संघर्ष का प्रयास, जीवन के निर्दयी परिहास पर अठ्ठहास है.

इस पतंगे को देखो, शमा के समक्ष क्या इसकी बिसात है,
पर इसी प्रभाव में है, की दीप इसी के मोह में जलता रात-दर-रात है.
जैसे ज़हर का शत्रु ज़हर, दिन के उजाले में दीप प्रकाश गुम हो गया,
शिखा विलुप्त तो कीट विक्षुप्त, अपने गम में गुमसुम कीट, महबूबा से महरूम रह गया.
फिर सांझ ढली तो प्रेम के दरिया का क्या भीषण प्रवाह हुआ,
मिलन को तत्पर कीट, जिसको सर्वस्व जाना, उसी के भीतर स्वाह हुआ.
धूँ-धूँ कर जल गया पर हिम्मत कहाँ डोली है,
अपनी आहुति को तत्पर, परवानों की पूरी टोली है.

कुछ सीख इन मौजों से लो, इन्हें पर्वत मोड़ लें, रोक नहीं सकते,
पुष्पों से मुस्कुराना सीखो, कभी पतझड़ का भी ये शोक नहीं करते.
पर क्यों लाख कोशिशों पर भी शिलाएं सरीता पी नहीं सकती,
जल-बिन मछली जितना छटपटाए, पशु सरीखा जी नहीं सकती.

वायु में भरसक वेग है तो पुष्पों की भी ग्रीवा झुकेगी,
शिलाओं की पिपासा तेज है तो सम्पूर्ण सरस्वती सूखेगी.
समस्या सरल है या किसी दूजी ही दुनिया का रोग है,
अंजाम ना देख, प्रयत्न करते रहना ही तो सच्चा कर्मयोग है.
-2003

Tuesday, July 26, 2011

From the Archives - 3 (कटाक्ष)

                                   कटाक्ष

यह कविता के माध्यम से देश को जानने का प्रयास है,
अपनी खामियों का उपहास नहीं, प्रगति की एक आस है.

भूमिका सरल थी, सो बंध गयी, अब एक आदर्श आरम्भ विचाराधीन है,
श्री गणेश को 'राम के सेवक' उपयुक्त हैं, पर सरकार भी तो 'लक्ष्मी' में लीन है.
मैंने आतंकवाद को प्राथमिकता दी तो भ्रष्टाचार की भृकुटी तन जाएगी,
मंदिर-मस्जिद का मसला सहलाया, तो धर्म के ठेकेदारों से ठन जाएगी.
एक ओर क़ानून की तानाशाही है, दूसरी ओर जुर्म की ललकार है,
'पोटा' खारिज हो या पारित, मुझे अब भी एक मुद्दे की दरकार है.

खेल के शौक़ीन ध्यान दें, दो अहम् की भिड़ंत है, स्वर्ग मेज़बान है,
'गुलशन था इसके दम पे', जमी बर्फ व बहता लहु, अब घाटी की पहचान है.
सीमा पर बिछा बारूद, दो देशों का टकराव नहीं, खून के रिश्तों में दरार है,
पर सरकारी नीतियों से मुझे क्या सारोकार, मेरी 'आवश्यकता' बरकरार है.

कहो तो मज़हबी कफ़न काट कर दिखाऊं, अन्दर अपनों की ही लाश है,
पर दिखाऊं किसे, दर्शक तो नदारद हैं, शायद अगले बकरे की तलाश है.
एक चिता जलेगी, तो एक कब्र खुदेगी, कुछ गज़ब का करार है,
'मोदी' से कोई मलाल नहीं, कुल एक 'आरम्भ' की गुहार है.

चीथड़ों में लिपटी गरीबी का चीत्कार सुनोगे, या नारी की विवश वेदना सुनाऊं,
पशोपेश में हूँ, 'जन्नत' से जीवन को बाध्य, किस प्राणी की गाथा गुनगुनाऊं.
'भारत उदय', सरकारी कार्यों का समूचा सार, पेपर में निकलते इश्तिहार हैं,
तीव्र विकास के आदि हैं नेता, सारे कटाक्ष बेकार हैं.

- 2002 (After the Gujarat riots)

Monday, July 25, 2011

From the Archives - 2 (मंगला-ऐक्सप्रेस)

                             मंगला-ऐक्सप्रेस 


नेत्रों पर सपनो के परदे गिरे हैं, कुछ सुखमय कुछ रुलाने वाली,
सभी को हम सीने से लगाए, हर याद लोम-लुभा रही है.
"यात्रीगण ध्यान दें, अर्नाकुलम से चलकर, हजरत निजामुद्दीन को जाने वाली,
लक्ष्यद्वीप-मंगला ऐक्सप्रेस, प्लेटफोर्म पर आ रही है."

शब्दों की पराकाष्ठा में बंधकर, इसे कैसे परिभाषित कर दूँ?
विचार-मात्र से जो भावनाएं उमड़ीं, उन्हें कैसे निष्काषित कर दूँ?
बच्चों की ये छुक-छुक गाड़ी, साहित्यकारों ने लौह-पथ गामिनी सुझाया,
'बहुजन सुखाय-बहुजन हिताय', मेरे अंतर्मन को 'हृदय-कामिनी' लुभाया.
डेढ़-सौ वर्षों से लगातार, प्यारे स्वदेश भारत का भाग्य ढोये,
इसके डिब्बे अनेकता में एकता के परिचालक, एक सूत्र में मानों मोती पिरोये.
मंगला के इतिहास से तो परिचित नहीं, पर इससे जुड़ी हमारी आस का अंदेशा है,
स्टेशन की निस्तब्धता को भेदती उसकी सीटी, हमारे वास्ते जैसे किसी ख़ास का संदेशा है.

विचारों की इन झलकियों के मध्य, टूटा हुआ तन लघु झपकियाँ ले रहा था,
व्यस्तम दिन के पश्चात, थकावट का सुरूर असावधान तन को थपकियाँ दे रहा था.
'मंगला' आगमन की सूचना सुनी तो मारे हर्ष के कंठ अवरुद्ध हो गया,
उसके आने से धुल उठी तो स्वांगन धरा की गंध से हृदय शुद्ध हो गया.
गति से उत्पन झोकों ने स्पर्श किया तो स्मृति में माँ का लाड़ आया,
मित्रों ने सचेत किया तो जाने कहाँ से भ्रात-प्रेम उमड़ आया.

सामान यथास्थान रखा, फिर जब नयन नवीन वातावरण के कुछ अभ्यस्त हुए,
देखा, असबाब की किसे चिंता थी, सब साथी शय्या पर जा पस्त हुए.
प्रात: परीक्षा, फिर सामान-संचय की वर्जिश, अब स्वयं पर ही कहाँ वश था,
अपना उत्साह बांचने को तत्पर, मैं भी चिर-निंद्रा में डूबने को विवश था.

स्वप्न लोक से मित्रों ने निकाला और मैं नया नाम 'शेखचिल्ली' पा गया,
मैं नहीं मानता पर सब कहते हैं, उठते ही पूछा - "दिल्ली आ गया?".
स्टेशन पर सभी ने कहकहे लगाए तो लज्जा से मैं लाल हुआ, सब इन्द्रियाँ अब सचेत थीं,
भोपुओं ने भेद बताया, सर्वदा की भांति 'मंगला रानी' निर्धारित समय से एक घंटा लेट थीं.
- 2003
(For 4 years in Manipal during engg., Mangla-Express was the favorite mode of transport for all the students travelling to Delhi, & nearby towns!)

From the Archives - 1 (सूर्य का शव)

                                    सूर्य का शव


लालिमा आकाश लील चुकी है, उजाले का वर्चस्व पिघल रहा है,

सारी सृष्टि मानो शोक में हो, फिर सूर्य का शव निकल रहा है.

पुष्पों के ललाट पर पड़े शिकन, पंछी मौन हैं, रूह इस कदर हिल गयी,

मेघों ने आवेश में लिया आलिंगन, और शिथिल तन को चादर मिल गयी.

टूटते तारों को भी देख स्वार्थी, स्वाकांक्षा पूर्ती की जो मांग करे,

जिसके अश्रु तक हैं द्विअर्थी, वो मानव भी दुःख का स्वांग भरे.



रात्रोपश्चात प्रभात, नियति भरे दम, कि नियत विधि अनिवार्य है,

किन्तु पंक्ति में फिर तम, कि उपस्थिति भी अपरिहार्य है.

अन्दर ही घुट रहा है जैसे मूक बधीर, सूर्यमुखी क्या जाने नियति कि माया,

जिसके अधीन हो, सूर्य व्याकुलता से अधीर, पूरब से पश्चिम तक हो आया.

वो सर्वस्व था और वही आराध्य, प्रारब्ध नहीं अपनी जड़ता पर रोष है,

सूर्यमुखी अब मुख छिपा लेने को बाध्य, आखिर सब उसका ही तो दोष है.
 
- 2004
  
 

From the Archives

Obviously, I have not been very active here. Which is a shame, as I am not busy at all. For sometime now (couple of years actually), I am unable to put my butt on the chair and focus. But intention remains. While I work at it, I thought I will post a few poems from my existing collection. It is not much, and perhaps too juvenile (they were written 8-10 years back!). But I thought it would be a good way to preserve them (they are on stray, cracked sheets of paper). Plus they might attract some feedback!
I will publish them in subsequent posts as "From the Archives - xx" with approx. year of writing below each post.