कहीं तो रेगिस्तानों में मंडराए,
झुलसती-हुई; धूल की पर्याय।
कहीं सीलन लिए बंद तहखानों में,
बेबस; जर्जर दीवारों से टकराये।
कहीं सागर के उफानों से बेफ़िक्र,
अल्हड़; मौजों से दौड़ लगाए।
और कहीं बहकी-बहकी मुसलसल बहती,
हवा / ज़िन्दगी; पूछे अस्तित्व का अभिप्राय।
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