Thursday, August 7, 2014

हवा / ज़िन्दगी

कहीं तो रेगिस्तानों में मंडराए,
झुलसती-हुई; धूल की पर्याय।

कहीं सीलन लिए बंद तहखानों में,
बेबस; जर्जर दीवारों से टकराये।

कहीं सागर के उफानों से बेफ़िक्र,
अल्हड़; मौजों से दौड़ लगाए।

और कहीं बहकी-बहकी मुसलसल बहती,
हवा / ज़िन्दगी; पूछे अस्तित्व का अभिप्राय।

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